गुरु कृपा के चमत्कार
संसार में लोग क्या करते हैं, जिसका आश्रय लेते हैं प्रीति उससे नहीं करते । आश्रय तो गुरु का लिया, प्रीति संसार से है; मेरा धंधा अच्छा चले .... । आश्रय गुरु का है पर प्रीति नश्वर से है ।
बाद में रोना पड़े ऐसा काम करना ही क्यों । पीछे दुःख उठाना पड़े ऐसा काम करना ही क्यों ।
बुद्धिमानी तो इसमें है कि देखने की शक्ति ख़त्म हो उसके पहले दृश्य जगत का आकर्षण खत्म हो जाए । बापू की वाणी में ये शक्ति है । बापू के सत्संग में ये शक्ति है कि दृश्य का आकर्षण छूट कर दृष्टि अपने उद्गम में लीन हो जाए । आप कभी-कभी एक प्रयोग करें; जब बैठे हो तो इधर-उधर की बातें ना सोचकर ये विचार करें कि आँख सबको देखती है पर अब मैं आँख को देख रहा हूँ ।
मन कईं बातें सोचता है इधर-उधर की पर कभी-कभी मन को देखो कि मन तू किस-किस के बारे में सोच रहा है हम तुझे देख रहे हैं तो विचारते-विचारते शांत हो जाएंगें । शांति का संपादन होगा ।
किसी की भी याद आए या चिंतन चले तो ये सोचे कि उसमें भी भगवान है,सब भगवान का ही रूप है ॐ ॐ ॐ ॐ.....
चिंतन मन में चल रहा है पर जब मेरा शरीर जन्मा नहीं था, क्या तब उसका चिंतन था क्या ? नहीं था । तो पहले भी नहीं,बाद में भी नहीं, अभी मेरे मन में चिंतन हो रहा है । और मन में भी चिंतन पहले नहीं था । बाद में नहीं रहेगा । ये सब मिथ्या है ।
बापूजी के ध्यान की कैसेटें हैं कई, चार-पाँच ध्यान की कैसेटें अपने साथ रखो । रोज सुबह नहा-धोकर पूर्व दिशा की ओर अपना पूजा का स्थान होना चाहिए । हम पूजा करने बैठे तो हमारा मुँह पूर्व में होना चाहिए । सुबह उस तरफ मुँह करके बैठ गए; गुरु का चित्र हो, इष्ट का चित्र हो; जिसको मानते हैं, उनको प्रेम से देखते जाओ । त्राटक करने की कोशिश मत करना, प्रेम से देखना । प्रेम से अपने गुरुदेव के श्री चित्र को एकटक देखते जाना । मन में ये भाव रखना कि बापू सामने विराजमान हैं । हम उन्हीं को एकटक देख रहे हैं और उस समय ध्यान की कोई कैसेट भले चलती रहे । आधे घंटे तक रोज देखो, ऐसा प्रयोग करो । बड़ा आनंद आएगा । बहुत उन्नति होगी ।
मैं क्या शब्द कहूँ, गुरुदेव से मानसिक संबंध जुड़ जाएगा । आपको ऐसा लगेगा कि मैं बापू के एकदम निकट हूँ या यों कहो कि बापू मेरे पास हैं, मेरे साथ हैं; वो हमसे कभी दूर नहीं हैं । भक्ति बढ़ती जाएगी, आध्यात्मिक उन्नति होती जाएगी ।
संसार में रहना मना नहीं है, रहें; पर संसार हमारे में ना रहे । नाव पानी में भले रहे, परन्तु पानी नाव में ना घुसे । नाव पानी में होगी तो वो नाव दूसरों को पार करने वाली होगी और पानी नाव में आ जाएगा तो वो नाव डूब जाएगी, बैठा हुआ भी डूब जाएगा । उस पानी को ना आने दो। अगर आ गया है तो उसको निकाल दो । उसी प्रकार इस मानव काया रूपी नाव में भी संसार का विषय भोग रूपी गंदा पानी अगर आ गया है तो उसको हम निकालने की तैयारी करें ।
आजकल कई लोग क्या करते हैं, मान की जगह पर आगे रहते हैं और सेवा में पीछे हट करते हैं ।
हम भी ऐसा जीवन जिएँ कि हमारे गुरुदेव को भी हम पर गर्व हो कि मेरे ऐसे शिष्य हैं, मेरे ऐसे सत्पात्र सेवक हैं ।
अनेक जन्मों में मेरे शरीर की मौत हुई और शरीर मेरा जल गया, या यूँ ही सड़ता रहा | अगर इस जन्म में गुरु की सेवा करते-करते तपी हुई धरती पर मेरे पैर जले तो मुझे कोई घाटा नहीं है । अनेक जन्मों का काम इस एक जन्म में हो जाएगा, मैं चौरासी के चक्कर से छूट जाऊँगा....।
लगता है, कि हमने गुरुजी की सेवा की, पर वास्तव में देखा जाये तो सेवा अपनी भलाई के लिए होती है । सेवा करने से हमारा ही भला होता है । हमारा हृदय शुद्ध होता है; हमारा अंतःकरण पवित्र होता है । सेवा के तीन रूप हैं – क्रियात्मक, भावात्मक और
विवेकात्मक । सेवा का क्रियात्मक रूप है कि अपने पास जो है वो सेवा में लगाना । फिर भले तन की शक्ति, धन की शक्ति; जो भगवान ने दिया है ।
सेवा का भावात्मक रूप है कि किसी को बुरा ना समझना, किसी का बुरा ना चाहना, किसी का बुरा ना करना ।
और सेवा का विवेकात्मक रूप है कि सेवा हो तो खूब की,पर बदले में कुछ इच्छा नहीं रखी।
जो गुरु की सेवा में और भक्ति में तत्पर रहता है तो प्रकृति भी उसकी आज्ञा में उसको अनुकूल हो कर चलती है ।
शिष्य हज़ारों मील दूर बैठा हो पर अपने गुरु को अगर दिल से याद करता है तो गुरु तक उसकी पुकार पहुँच जाती है ।
साधकों को गुरु के सत्संग के द्वारा साधन निधि से सम्पन्न होना है । अपने जीवन में भूल से उत्पन्न हुई कामनाओं का अन्त करना है । भूल से उत्पन्न हुई जो कामनाएँ और वासनाएँ हैं, उसके लिए अभ्यास की जरूरत नहीं है ।
बुद्धिमान वो है जो बुद्धि पूर्वक संसार से संबंध विच्छेद करके, जिसके साथ संबंध जुड़ा हुआ है उस संबंध की स्मृति करता है ।
मेरे गुरुदेव से बड़ा इस धरती पर तो क्या इन तीनों लोकों में और कोई है ही नहीं । मैं किसके चरणों में सिर झुकाऊँ? ये सर है अमानत बापू की हर जगह झुकाया जाता नहीं, ये दिल है अमानत सद्गुरु की इसमें और कोई बिठाया जाता नहीं ।
जो निष्ठावान गुरुभक्त शिष्य होता है, वो कुछ भी देखे-सुने, वो ऐसा नहीं बोल सकता कि ये भी बापू जैसे ही हैं ना । ये भी बापू जैसा ही बोलते हैं ना, ना-ना.... बापू जैसे तो केवल बापू ही हैं । और कोई नहीं हो सकता । क्योंकि बापू ने कितनी तपस्या
की, कितनी तितिक्षा सही, कितने कष्ट सहे । माँ को छोड़ा, पत्नी को छोड़ा, घर की सुविधा छोड़ी, सम्पत्ति छोड़ी । रिद्धि-सिद्धि भी छोड़ दी ।
गुरुदेव के सानिध्य में रहकर भी कितने कष्ट सहे । कैसी छोटी-सी कुटिया थी । सीधे उसमें प्रवेश नहीं कर पाते थे, झुककर अन्दर जाना पड़ता था । उस कुटिया में सर्वांगासन ठीक से नहीं कर पाते थे, इतनी नीची थी । ऐसे कष्ट सहकर जो पाया, वो हमको हँसते-हँसते दे रहे हैं। उन्हीं को सच्चे सद्गुरु कहा जाता है । बाकी किताबें पढ़-पढ़कर, मंत्र कहीं से पढ़-पढ़कर बैठ गए और गुरु बन गए, नहीं नहीं ..... । निष्ठावान शिष्य ऐसे समर्थ सद्गुरु की शरण में रहता है और अपना जीवन वो उन्नत बनाता है ।
बुद्धिमानी तो इसमें है कि देखने की शक्ति ख़त्म हो उसके पहले दृश्य जगत का आकर्षण खत्म हो जाए । बापू की वाणी में ये शक्ति है । बापू के सत्संग में ये शक्ति है कि दृश्य का आकर्षण छूट कर दृष्टि अपने उद्गम में लीन हो जाए । आप कभी-कभी एक प्रयोग करें; जब बैठे हो तो इधर-उधर की बातें ना सोचकर ये विचार करें कि आँख सबको देखती है पर अब मैं आँख को देख रहा हूँ ।
मन कईं बातें सोचता है इधर-उधर की पर कभी-कभी मन को देखो कि मन तू किस-किस के बारे में सोच रहा है हम तुझे देख रहे हैं तो विचारते-विचारते शांत हो जाएंगें । शांति का संपादन होगा ।
किसी की भी याद आए या चिंतन चले तो ये सोचे कि उसमें भी भगवान है,सब भगवान का ही रूप है ॐ ॐ ॐ ॐ.....
चिंतन मन में चल रहा है पर जब मेरा शरीर जन्मा नहीं था, क्या तब उसका चिंतन था क्या ? नहीं था । तो पहले भी नहीं,बाद में भी नहीं, अभी मेरे मन में चिंतन हो रहा है । और मन में भी चिंतन पहले नहीं था । बाद में नहीं रहेगा । ये सब मिथ्या है ।
बापूजी के ध्यान की कैसेटें हैं कई, चार-पाँच ध्यान की कैसेटें अपने साथ रखो । रोज सुबह नहा-धोकर पूर्व दिशा की ओर अपना पूजा का स्थान होना चाहिए । हम पूजा करने बैठे तो हमारा मुँह पूर्व में होना चाहिए । सुबह उस तरफ मुँह करके बैठ गए; गुरु का चित्र हो, इष्ट का चित्र हो; जिसको मानते हैं, उनको प्रेम से देखते जाओ । त्राटक करने की कोशिश मत करना, प्रेम से देखना । प्रेम से अपने गुरुदेव के श्री चित्र को एकटक देखते जाना । मन में ये भाव रखना कि बापू सामने विराजमान हैं । हम उन्हीं को एकटक देख रहे हैं और उस समय ध्यान की कोई कैसेट भले चलती रहे । आधे घंटे तक रोज देखो, ऐसा प्रयोग करो । बड़ा आनंद आएगा । बहुत उन्नति होगी ।
मैं क्या शब्द कहूँ, गुरुदेव से मानसिक संबंध जुड़ जाएगा । आपको ऐसा लगेगा कि मैं बापू के एकदम निकट हूँ या यों कहो कि बापू मेरे पास हैं, मेरे साथ हैं; वो हमसे कभी दूर नहीं हैं । भक्ति बढ़ती जाएगी, आध्यात्मिक उन्नति होती जाएगी ।
संसार में रहना मना नहीं है, रहें; पर संसार हमारे में ना रहे । नाव पानी में भले रहे, परन्तु पानी नाव में ना घुसे । नाव पानी में होगी तो वो नाव दूसरों को पार करने वाली होगी और पानी नाव में आ जाएगा तो वो नाव डूब जाएगी, बैठा हुआ भी डूब जाएगा । उस पानी को ना आने दो। अगर आ गया है तो उसको निकाल दो । उसी प्रकार इस मानव काया रूपी नाव में भी संसार का विषय भोग रूपी गंदा पानी अगर आ गया है तो उसको हम निकालने की तैयारी करें ।
आजकल कई लोग क्या करते हैं, मान की जगह पर आगे रहते हैं और सेवा में पीछे हट करते हैं ।
हम भी ऐसा जीवन जिएँ कि हमारे गुरुदेव को भी हम पर गर्व हो कि मेरे ऐसे शिष्य हैं, मेरे ऐसे सत्पात्र सेवक हैं ।
अनेक जन्मों में मेरे शरीर की मौत हुई और शरीर मेरा जल गया, या यूँ ही सड़ता रहा | अगर इस जन्म में गुरु की सेवा करते-करते तपी हुई धरती पर मेरे पैर जले तो मुझे कोई घाटा नहीं है । अनेक जन्मों का काम इस एक जन्म में हो जाएगा, मैं चौरासी के चक्कर से छूट जाऊँगा....।
लगता है, कि हमने गुरुजी की सेवा की, पर वास्तव में देखा जाये तो सेवा अपनी भलाई के लिए होती है । सेवा करने से हमारा ही भला होता है । हमारा हृदय शुद्ध होता है; हमारा अंतःकरण पवित्र होता है । सेवा के तीन रूप हैं – क्रियात्मक, भावात्मक और
विवेकात्मक । सेवा का क्रियात्मक रूप है कि अपने पास जो है वो सेवा में लगाना । फिर भले तन की शक्ति, धन की शक्ति; जो भगवान ने दिया है ।
सेवा का भावात्मक रूप है कि किसी को बुरा ना समझना, किसी का बुरा ना चाहना, किसी का बुरा ना करना ।
और सेवा का विवेकात्मक रूप है कि सेवा हो तो खूब की,पर बदले में कुछ इच्छा नहीं रखी।
जो गुरु की सेवा में और भक्ति में तत्पर रहता है तो प्रकृति भी उसकी आज्ञा में उसको अनुकूल हो कर चलती है ।
शिष्य हज़ारों मील दूर बैठा हो पर अपने गुरु को अगर दिल से याद करता है तो गुरु तक उसकी पुकार पहुँच जाती है ।
साधकों को गुरु के सत्संग के द्वारा साधन निधि से सम्पन्न होना है । अपने जीवन में भूल से उत्पन्न हुई कामनाओं का अन्त करना है । भूल से उत्पन्न हुई जो कामनाएँ और वासनाएँ हैं, उसके लिए अभ्यास की जरूरत नहीं है ।
बुद्धिमान वो है जो बुद्धि पूर्वक संसार से संबंध विच्छेद करके, जिसके साथ संबंध जुड़ा हुआ है उस संबंध की स्मृति करता है ।
मेरे गुरुदेव से बड़ा इस धरती पर तो क्या इन तीनों लोकों में और कोई है ही नहीं । मैं किसके चरणों में सिर झुकाऊँ? ये सर है अमानत बापू की हर जगह झुकाया जाता नहीं, ये दिल है अमानत सद्गुरु की इसमें और कोई बिठाया जाता नहीं ।
जो निष्ठावान गुरुभक्त शिष्य होता है, वो कुछ भी देखे-सुने, वो ऐसा नहीं बोल सकता कि ये भी बापू जैसे ही हैं ना । ये भी बापू जैसा ही बोलते हैं ना, ना-ना.... बापू जैसे तो केवल बापू ही हैं । और कोई नहीं हो सकता । क्योंकि बापू ने कितनी तपस्या
की, कितनी तितिक्षा सही, कितने कष्ट सहे । माँ को छोड़ा, पत्नी को छोड़ा, घर की सुविधा छोड़ी, सम्पत्ति छोड़ी । रिद्धि-सिद्धि भी छोड़ दी ।
गुरुदेव के सानिध्य में रहकर भी कितने कष्ट सहे । कैसी छोटी-सी कुटिया थी । सीधे उसमें प्रवेश नहीं कर पाते थे, झुककर अन्दर जाना पड़ता था । उस कुटिया में सर्वांगासन ठीक से नहीं कर पाते थे, इतनी नीची थी । ऐसे कष्ट सहकर जो पाया, वो हमको हँसते-हँसते दे रहे हैं। उन्हीं को सच्चे सद्गुरु कहा जाता है । बाकी किताबें पढ़-पढ़कर, मंत्र कहीं से पढ़-पढ़कर बैठ गए और गुरु बन गए, नहीं नहीं ..... । निष्ठावान शिष्य ऐसे समर्थ सद्गुरु की शरण में रहता है और अपना जीवन वो उन्नत बनाता है ।
संसार में लोग क्या करते हैं, जिसका आश्रय लेते हैं प्रीति उससे नहीं करते । आश्रय तो गुरु का लिया, प्रीति संसार से है; मेरा धंधा अच्छा चले .... । आश्रय गुरु का है पर प्रीति नश्वर से है ।
शिष्य के दिल में ये भावना होनी चाहिए कि मेरे गुरुजी जो भी कहते हैं और जो भी करते हैं, वो केवल मेरी भलाई के लिए ही करते हैं, बस और दूसरा कुछ नहीं है । उन्हें मुझसे क्या लेना है, उनके आगे तो पूरी पृथ्वी का ऐश्वर्य तुच्छ है । स्वर्ग के भोग भी जिनके आगे तुच्छ हैं, ऐसे गुरु को हम क्या दे सकते हैं । फिर भी वो कृपा करके मुझे कुछ कहते हैं तो जरूर वो मेरा भला चाहते हैं, जरूर वो मेरी उन्नति चाहते हैं । इसलिए उन्होंने मुझे कुछ कहा । माँ मिठाई तो पड़ोस के बच्चों को भी दे सकती है, पर मारना होगा तो वो अपने बेटे को थप्पड़ लगाएगी; पड़ोसी के बच्चे को नहीं लगा सकती । इसीलिए गुरुदेव ने मुझे अपना माना है इसलिए कुछ कह दिया ।
Guru Kripa ke Chamatkar
Guru Kripa ke Chamatkar
Baad me rona pade, aisa kaam karna hi kyun. Piche dukh uthana pade, aisa kaam karna hi kyun.
Budhimani to isme hai ki dekhne ki shakti khatm ho, uske pehle drishya jagat ka akarshan khatm ho jae. Bapu ki vani me ye shakti hai; Bapu ke satsang me ye shakti hai ki drishya ka akarshan chhut kar drishti apne udgam me leen ho jae. Aap kabhi-kabhi ek prayog kare. Jab baithe ho to idhar udhar ki baaten na soch kar ye vichar kare ki ankh sabko dekhti hai, par ab mai ankh ko dekh raha hun.
Man kai baaten sochta hai idhar udhar ki, par kabhi-kabhi man ko dekho ki man tu kis kis ke bare me soch raha hai, hum tujhe dekh rahe hain; to vicharte-vicharte shant ho jaenge. Shanti ka sampadan hoga.
Kisi ki bhi yaad aae ya chintan chale to ye soche ki usme bhi bhagvan hai, sab bhagvan ka hi roop hai… om om om om……
Chintan man me chal raha hai par jab mera sharir janma nahi tha, kya tab uska chintan tha kya? Nahi tha. To pehle bhi nahi, baad me bhi nahi, abhi mere man me chintan ho raha hai. Aur man me chintan pehle nahi tha, baad me nahi rahega. Ye sab mithya hai.
Chintan man me chal raha hai par jab mera sharir janma nahi tha, kya tab uska chintan tha kya? Nahi tha. To pehle bhi nahi, baad me bhi nahi, abhi mere man me chintan ho raha hai. Aur man me chintan pehle nahi tha, baad me nahi rahega. Ye sab mithya hai.
Bapuji ki dhyan ki cassette hai kai; 4-5 dhyan ki cassette apne sath rakho. Roj subah naha-dho kar; purv disha ki or apna puja ka sthan hona chahiye, hum puja karne baithe to humara muh purv me hona chahiye; Subah us taraf muh kar ke baith gae, Guru ka chitra ho, isht ka chitra ho; jisko mante hai, unko prem se dekhte jaao. Tratak karne ki koshish mat karna, prem se dekhna. Prem se apne Gurudev ke Shri chitr ko ek-tak dekhte jana. Man me ye bhav rakhna ki Bapu samne virajman hai. Hum unhi ko ek-tak dekh rahe hai aur us samay dhyan ki koi cassette bhale chalti rahe. Adhe ghante tak roj dekho, aisa prayog karo. Bada anand aega, bahut unnati hogi.
Mai kya shabd kahu, Gurudev se mansik sambandh jud jaega. Apko aisa lagega ki mai Bapu ke ekdam nikat hun, ya yu kaho ki Bapu mere paas hai, mere sath hai, wo humse kabhi dur nahi hai. Bhakti badhti jaegi, adhyatmik unnati hoti jaegi.
Sansar me rehna mana nahi hai, rahe, par sansar hamare me na rahe. Naav pani me bhale rahe, parantu pani naav me na ghuse. Naav pani me hogi to wo naav dusro ko paar karne wali hogi aur pani naav me aa jaega to wo naav dub jaegi, baitha hua bhi dub jaega. Us pani ko na ane do. Agar aa gaya hai to usko nikal do. Usi prakar is manav kaya rupi naav me bhi sansar ka vishay bhog roopi ganda pani agar aa gaya hai to usko hum nikalne ki tayari kare.
Aajkal kai log kya karte hai, maan ki jagah par agey rehte hai aur sewa me piche hata karte hai.
Hum bhi aisa jeevan jiye ki humare Gurudev ko bhi hum par garv ho ki mere aise shishya hai, mere aise sat-patr sewak hain.
Anek janmo me mere sharir ki maut hui aur sharir mera jal gaya, ya yun hi sadta raha. Agar is janm me Guru ki sewa karte-karte tapi hui dharti par mere pair jale to mujhe koi ghata nahi hai. Anek janmo ka kaam is ek janm me ho jaega. Mai chaurasi ke chakkar se chhut jaunga.
Lagta hai, ki humne Guruji ki sewa ki, par vastav me dekha jae to sewa apni bhalai ke liye hoti hai. Sewa karne se humara hi bhala hota hai. Humara hriday shudh hota hai, humara antah-karan pavitra hota hai. Sewa ke teen roop hai – Kriyatmak, Bhavatmak aur Vivekatmak. Sewa ka kriyatmak roop hai ki apne paas jo hai wo sewa me lagana. Fir bhale tan ki shakti, dhan ki shakti; jo bhagvan ne diya hai.
Sewa ka bhavatmak roop hai ki kisi ko bura na samajhna, kisi ka bura na chahna, kisi ka bura na karna. Aur sewa ka vivekatmak roop hai ki sewa ho to khub ki, par badle me kuch ichha nahi rakhi.
Jo Guru ki sewa me aur bhakti me tatpar rehta hai to prakriti bhi uski agya me usko anukul ho kar chalti hai.
Shishya hajaro meel door baitha ho par apne Guru ko agar dil se yaad karta hai to Guru tak uski pukaar pahunch jati hai. Sadhako ko Guru ke satsang ke dwara sadhan nidhi se sampann hona hai. Apne jeevan me bhul se utpann hui kamnao ka ant karna hai. Bhul se utpann hui jo kamnae aur vaasnae hai, uske liye abhyas ki jarurat nahi hai.
Budhimaan wo hai jo budhi purvak sansar se sambandh vichhed kar ke jiske sath sambandh juda hua hai, us sambandh ki smriti karta hai.
Mere Gurudev se bada is dharti par to kya, in tino lokon me aur koi hai hi nahi. Mai kiske charno me sir jhukau. Ye sir hai amanat Bapu ki, har jagah jhukaya jata nahi; ye dil hai amanat Sadguru ki, isme aur koi bithaya jata nahi.
Jo nishthawan Gurubhakt shishya hota hai, wo kuch bhi dekhe-sune, wo aisa nahi bol sakta ki ye bhi Bapu jaise hi hai na. ye bhi Bapu jaisa hi bolte hai na. Na..na.. Bapu jaise to keval Bapu hi hai. Aur koi nahi ho sakta. Kyuki Bapu ne kitni tapasya ki, kitni titiksha sahi, kitne kasht sahe. Maa ko chhoda, patni ko chhoda, ghar ki suvidha chhodi, sampatti chhodi. Ridhi sidhi bhi chhod di.
Gurudev ke sannidhya me reh kar bhi kitne kasht sahe. Kaisi chhoti si kutiya thi, sidhe usme pravesh nahi kar pate the; jhuk kar andar jana padta tha. Us kutiya me sarvang-asan thik se nahi kar pate the, itni niche thi. Aise kasht seh kar jo paya, wo humko hanste-hanste de rahe hai. Unhi ko sache Sadguru kaha jata hai. Baki kitabey padh-padh kar, mantr kahin se padh-padh kar baith gae aur Guru ban gae, nahi nahi… Nishthavan shishya aise samarth Sadguru ki sharan me rehta hai aur apna jeevan wo unnat banata hai.
Sansar me log kya karte hai, jiska ashray lete hai, priti usse nahi karte. Ashray to Guru ka liya, priti sansar se hai; mera dhandha acha chale… Ashray Guru ka hai par priti nashwar se hai.
Shishya ke dil me ye bhavna honi chahiye ki mere Guruji jo bhi kehte hain aur jo bhi karte hain, wo keval meri bhalai ke liye hi karte hain, bas dusra kuch nahi hai. Unhe mujhse kya lena hai; unke agey to puri prithvi ka aishwarya tuchh hai. Swarg ke bhog bhi jinke agey tuchh hai, aise Guru ko hum kya de sakte hai. Fir bhi wo kripa kar ke mujhe kuch kehte hai to jarur wo mera bhala chahte hain, jarur wo meri unnati chahte hain. Isliye unhone mujhe kuch kaha. Maa mithai to pados ke bacho ko bhi de sakti hai, par marna hoga to wo apne bete ko thappad lagaegi, padosi ke bachche ko nahi laga sakti. Isi liye Gurudev ne mujhe apna mana hai, isliye kuch keh diya.
waaaaaaaaaa.........h
ReplyDeleteसच-मुच गुरुसेवा से अनेक जन्मों का काम इस एक जन्म में हो जाता है । अनेक जन्मो के पाप-पुण्य भी (जिनके कारण कई योनियों में भटकना पड़े)नष्ट हो जाते है और ब्रह्मज्ञान पचाने की पात्रता भी हो जाती है। ऐसा कईयों का अनुभव भी है।
लगता है, कि हमने गुरुजी की सेवा की, पर वास्तव में देखा जाये तो सेवा अपनी भलाई के लिए होती है- इसी सत्संग से।
और वाह सतशिष्य के लक्षण और उनके अपने गुरुदेव के प्रति कैसे भाव होते है, वो कितना सुन्दर बताया है सुरेशानन्दजी ने। ऐसे सतशिष्यों पर ही तो पूर्ण गुरुकृपा के पूर्ण चमत्कार होते है।
गुरुदेव दया कर दो मुझ पर, मुझे अपनी शरण मे रहने दो.........
Adbhut !!! Gurubhakti badhaane ke liye uttam sadhan hai sureshanandji ka satsang. Prabhuji, apke is blog ne kamaal kiya hai . Ashray bhi Guru ka aur preeti bhi unhi se. Bahut BADHIYA.
ReplyDeleteKisi ka bhi chintan chale par usme mere bhagvaan hi hain. Waah, isi tarah hum sabki gurubhakti badhti rahe.
aise hi seva karte rahiye...........
अति उत्तम विचार.
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